शान्तिरशांतस्य कुतः सुखम।-------------- श्रीमद भगवद्गीता २/६६
शान्ति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?
अर्थात विषयों में आसक्ति होने के कारण वह परमात्मास्वरूप (अनंत का ) का चिंतन भी नहीं कर सकता . इसमें यही भाव दिखलाया गया की चित में शान्ति का प्रादुर्भाव हुए बिना कहीं किसी भी अवस्था में किसी भी उपाय से मनुष्य को सुख नहीं मिल सकता। विषयो और इन्द्रियों के संयोग में तथा निद्रा ,आलस्य और प्रमाद में भ्रमसे जो सुखकी प्राप्ति होती है , वह वास्तवमें सुख नहीं है , वह तो दुःख का हेतु होने से वस्तुतः दुःख ही है।
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