चरणस्पर्श
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः
चैतन्यः शाश्वतः शान्तो व्योमातीतोनिरञ्जनः ।
बिन्दूनादकलातीतस्तस्मै श्रीगुरवे नमः
अनेकजन्मसम्प्राप्तकर्मेन्धनविदाहिने ।
आत्मञ्जानाग्निदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुंतं नमामि।
* * *
रे मन अब वृत्ति काग कि त्याग
ताज विषय पी नाम का जाम। ……भज ले रे मन
क्या जगमे तू रहेगा हमेशा कायम यहाँ किसको देखा ,
कूच हैं करते सिद्दा सुलतान। ....... भज ले रे मन
जीवन को लुटा गए अकारथ , नाम भजन में न कर गए सकारथ ,
रावण जैसे भी हुए बदनाम। ....... भज ले रे मन
तुझे पुरातन तारिख यह कहती ,सिद्ध पुरुषो कि साक्षी देती ,
करें जो भक्ति उन्ही का नाम। ……भज ले रे मन
कर बंदगी और नाम ध्याले , नर तन में ही तू प्रभु पाले ,
दास कह रहे संत सुजान। .......... भज ले रे मन प्रभु का नाम
ॐ तत सत
नमस्ते पर ब्रह्म नमस्ते परमात्मने |
निर्गुणाय नमस्तुभ्यं सद्रूपय नमो नमः ||
`* * *
सत्संगत्वे निस्संगत्वं निसंगत्वे निर्मोहात्वं ।
निर्मोहत्वे निश्चलत्वं निश्चाल्त्वे जीवनमुक्ति ॥
* * *
वास्तव मे प्रत्यक्ष को प्रमाण कि आवश्यकता नहीं है । पर क्या यह "प्रत्यक्ष " हमें प्रत्यक्ष जान पड़ता है। क्यों नहीं जान पड़ रहा है? इसके कई कारण हो सकते है, लेकिन यहाँ पर श्री मद भगवद्गीता का श्लोक -१६:१८ में कृष्ण माहराज कह रहे है -
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः
मामात्मपरदेहेषु प्रदविशन्तो अभ्यसूयकाः।
वे अहंकार ,बल घमण्ड ,कामना और क्रोध आदि के परायण और दूसरों के निंदा करनेवाले पुरुष अपने और दूसरो के स्थित मुझ अन्तरयामी से द्वेष करने वाले होते है।
Bewildered
by 1) false ego, 2) strength, 3) pride, 4) lust and 5) anger, the demon becomes
envious of the Supreme Personality of Godhead, who is situated in his
own body and in the bodies of others, and blasphemes against the real
religion.
साधारण से दिखने वाले यह गुरूजी कि किताबो में गूढ़ से अति गूढ रहस्य बहुत साधारण भाषा में कहगाये है। मुझे याद आता है जब एक दिन हम (मैं , नीरज और अंकलजी ) शाहपुरा आश्रम पहुंचे , पहुँचने के साथ ही मैंने अपनी एक जिज्ञासा उनके सामने रखी कि आप में और मुझ में क्या फर्ख है. उन्होंने ने तुरंत जवाब दिया " कुछ भी नहीं"। मै मौन रहा और आदतन थोड़ी देर बाद मैने फिर उनसे कहा आप, आप है; मैं क्या हूँ कुछ भी नहीं यह कैसे हो सकता है कि एक हो , कुछ तोह फर्ख होगा ही , हम सब अलग -अलग है , ऐसा दिख ही रहा है , है न। फिर जो कुछ उन्होंने समझाया वह इस प्रकार है। किताब पीयूष कि धारा मरूस्थल में- मेरे किये है भरम सब दूर में छेः बातें पढ़वाया। जो कि निम्न है।
१. मैं जीव अर्थात एक रचना हूँ (I am jeeva and I have been created)
२. शरीर आत्मा है, मैं शरीर हूँ। (Body is soul, I am body)
३. परमात्मा विश्व (जगत औऱ जीवन) भिन्न भिन्न है (God & world is different)
४. मै परमात्मा नहीं हूँ। (I am not God)
५. नहीं जानते कि शरीर आत्मा नहीं है। (Not knowing that body is not soul)
६. नहीं जानते कि परमात्मा , जगत और जीव एक या वाही है। (Not knowing that God, world, jiva are one and same)
यहाँ पर येही दर्शाने का प्रयत्न किया जा रहा है कि जब तक प्राणी मात्र से यह भूले नहीं मिटेंगी तब तक व यह नहीं समझ पायेगा कि परमात्मा , जगत ,जीव और शरीर क्या है?
प्रश्न यह उठता है कि जब जीव सबको जांनने वाला जनैया है अर्थात स्वयं ही ज्ञान मूर्ती है , तो उसको ज्ञान कि क्या आवशयकता है।
निराकरण : संतमत( Sant Mat) के आधार पर - जीव को ज्ञान तो है पर बाहरी इन्द्रियो के आघात के कारण आक्षेप जैसे त्रुटियां ,भूल और अनभिज्ञतायें आ जाती है। जिन्हे सतगुरु द्वारा परखकर निज स्वरुप (चेतन) दर्शाया जाता है। (यहाँ आघात ,त्रुटियां ,भूल अनभिज्ञतायें गीता के १६:१८ से समझ सकते है )
इसको और समझने के लिए मै यहाँ पर महराज सवनसिंह (राधास्वामी सत्संग ) कि बातों का उल्लेख कर रहा हूँ, सावनसिंह महराज कह रहे है
झीनी सुरत रूप नहीं दरसे , परसे शब्द जाये मन घर से।
रूह(soul) हमारा रूप देखना चाहती है - वह कैसी है ;हम शरीर नहीं है ,हम मन भी नहीं है , हम रूह है , जिस प्रकार किसी प्रकाशमान लैम्प को ऊपर टाट के परदे से ढक दें और एक अँधेरे कमरे में लेकर जयें , तो अँधेरा दूर नहीं होगा, पर ज्यों -ज्यों परदे उतरते जायेंगे रौशनी कि किरणे छन -छन कर बहार आने लगेंगी, और कमरा प्रकाश से भर जायेगा। जब सभी परदे उतर जायेंगे ,लैम्प अपनी पूरी रौशनी में प्रकट हो जायेगा , ठीक इसी प्रकार हमारे रूह पर परदे चढ़े हुए है।
पहला स्थूल शरीर इसके अंदर सूक्ष्म और उसके अंदर कारण शरीर है फिर आग, हवा, मिटटी, पानी, आकाश (५ तत्व ), राजो, तमो, सतो (३ गुण )पच्चीस प्रकृतियों ,काम,क्रोध ,लोभ ,मोह ,अहंकार और मन के आवरण चढ़े हुए है हम अपना रूप नहीं देख पा रहे है ।
इस स्तिथि के अनुभवी मौलाना रुमी साहेब कहते है
ता तुई के यार गरदद यारे तू
ताना बाशी यार बशद यारे तू
जब तक तू कहता है " मै हूं " तब तक तेरा यार नहीं बनता जब " मै " छोड देगा तो वोह तेरा यार बन जायेगा।
कबीर साहेब कहते है
जब लग मेरी मेरी करें। तब लागु काजु एकु नहीं सरै.
जब मेरी मेरी मिटि जाई। तब प्रभ काज सवारहि आई।
मालिक अंदर है , उसे कहीं बहार से नहीं आना है। जब यह "मै" "मै "करना छोड़ देगा , वह अंदर प्रकट हो जायेगा।
इस तरह हम जान सकते है कि हम अलग अलग नहीं अपितु द्वैत के कारण , हमें अलग अलग नज़र आता है , और जैसे १६-१८ में कहा है कि वोह आसुरी तत्व कभी भी उस परमेश्वर(आत्मा) हमारे ही भीतर बसे हुए दिल दार से मिलने नहीं देते ,बल्कि उस दिलदार से जलते भी है , जलते है इसीलिए हमें उनसे मिलने से भी रोकते है; चारो गली बंद करके। हमारे ऊपर कई.पट्टिया है।परत दर परत खुल गई तोह हम सब एक ही है.
उन्होंने कभी अलग नहीं समझा क्यों कि वोह सत्य के ज्ञाता है ,पूर्ण है , हम ही भटके हुए मानव हैं। अपना घर हमेशा दुसरो के मोहल्ले में ढूंढ रहे हैं।
मजेदार बात यह है कि उसरात मैंने पढा, लेकिन कुछ समझ नहीं आया , और पूछता तो एक और लम्बा लेख पढना होता इसलिए चुप रहा, (तब ऍसा ही सोचते थे ) रात गयी बात गयी। हम गुरूजी को भूल जाते है लेकिन वो कभी नहीं भूलते। वो किसी न किसी रूप में हमारी जिज्ञासा को शांत कर ही देते है। इतने सालो बाद जो कुछ वो कह रहे है , अब वो इतना अद्भुत लगरहा है। और वो कौनसी आसुरी तत्व थे जो हमको रोकते है वो भी समझ आने लगे , वह इस प्रकार है-
गुरूजी अपनी वाणी में कह रहे है प्यारे भाईयों और बहिनों हमे कुछ भी नहीं बनना है ,क्यों कि कुछ बनना ही भ्रम पैदा करता है , इसलिए जैसे के तैसे रहो (Be like what you are in REAL NATURE not apparent nature). पदार्थ पद में से बनकर मूल को भूल जाता है। (Light is trapped in the matter) सद्गुरु कि शरण में जाकर अपने पद अर्थात निज स्वररूप को जानो, जो नित्य (Everlasting ) और पूर्ण (complete) है। कहना का आशय यह है कि तुम भी पूर्ण सर्वशक्तिमान जगत हो , अंतर केवल पहचान का है।
देखा कितने सरल तारीखे से गहरी बातो को कह दिया है। केवल पहचान का है , हम सब एक ही है , पर केवल अहंकार , बल ,घमंड, कामना और क्रोध के कारण हमारे अंतर स्तिथ परमात्मा कि पहचान नहीं हो पा रही है। अगर पह्चानना हो तो सत्संग और सत्संग कि शरण जा कर पहचानना होगा। सत्संग हमें येही सिखाता है कि हम सब एक है और एक साथ कदम बढाके चलना है, सद्गुरु के शरण में जाकर , समर्पण कर। भ्रम के जाल से मुक्ति होकर प्रतक्ष को बोध स्वरुप जान लेना है। हम सब सद्गुरु के ही बच्चे है , बिलकुल भी अलग नहीं है। और संचित कर्मो का नाश करने में हमारी मदद करते है। हम अपने कर्मो का दाम दे ,सदाचार ,शील ,करुणा ,न्याय अपना कर ,अध्यात्मिक संयम का पालन करें। और सदा चित उनके लारे से लगाये रखे / रहे।
जब तक हम मानते रहेंगे , जानते नहीं तब तक प्रमाण मांगते रहेंगे ,जब हम जानजायेंगे , उसका प्रमाण कैसा?
गुरूजी कहते है- ध्यान में रखने वाली बात इतनी है कि - दो सब (Give away) जिसके लिए वो कहता है , और उन वस्तुओ को प्राप्त (Receive) करो जिसके लिए उसने वचन दिया है।
जब तक हम मानते रहेंगे , जानते नहीं तब तक प्रमाण मांगते रहेंगे ,जब हम जानजायेंगे , उसका प्रमाण कैसा?
गुरूजी कहते है- ध्यान में रखने वाली बात इतनी है कि - दो सब (Give away) जिसके लिए वो कहता है , और उन वस्तुओ को प्राप्त (Receive) करो जिसके लिए उसने वचन दिया है।
"I don't ask that he must prove
His word is true to me
And that before let me see
it is enough for me to know
it is true because he says it's so.
on his unchanging word, I will stand
And trust till I can understand."
गुरु बिन भ्रम न भागे भाई , कोटि उपाय करै चतुराई
गुरु बिन होम यज्ञ जो साधे , और मन दस पातक बाँधे ।
गुरु के चरण सदा चित दीजे , जीवन जनम सफल कर लीजे
गुरु के चरण सदा चित जाना , क्यों भूले तुम चतुर सुजाना।
* * *
"हमारी प्रार्थनाएं भले ही असफल हो जावे ,(उन पानी कि फव्वारों को कूप से ऊपर लेन में ) परन्तु उसकी महिमा में जो गान गए जायेंगे वे कभी भी असफल न होंगे , क्योंकि प्रभु को कुछ नहीं चाहिए , सिवाये महिमा के , व हमेशा तुम्हे तुम्हारे सुकृत्यों के लिए ताज पहनायेगा क्यों कि तुम्हारे किये गए सुकृत ही उसकी महिमा है।
उसके कार्यों जो उसने हमारे लिए किये उस हेतु धन्यवाद् दो" …पियूष कि धरा मरूस्थल में।
3pointgroup.blogspot.in
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भजन
भज ले रे मन प्रभु का नाम ,
नाम बिना जीवन किस काम.
नर देहि पायी ,उत्तम भाग ,रे मन अब वृत्ति काग कि त्याग
ताज विषय पी नाम का जाम। ……भज ले रे मन
क्या जगमे तू रहेगा हमेशा कायम यहाँ किसको देखा ,
कूच हैं करते सिद्दा सुलतान। ....... भज ले रे मन
जीवन को लुटा गए अकारथ , नाम भजन में न कर गए सकारथ ,
रावण जैसे भी हुए बदनाम। ....... भज ले रे मन
तुझे पुरातन तारिख यह कहती ,सिद्ध पुरुषो कि साक्षी देती ,
करें जो भक्ति उन्ही का नाम। ……भज ले रे मन
कर बंदगी और नाम ध्याले , नर तन में ही तू प्रभु पाले ,
दास कह रहे संत सुजान। .......... भज ले रे मन प्रभु का नाम
ॐ तत सत
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